Sunday, December 21, 2008

meer ki shayyiri

देख तो दिल कि जां से उठता है यह धुंआ-सा कहाँ से उठता है गोर[कब्र] किस दिलजले कि है यें फलक शोला इक सुबह यां से उठता है खाना-ए-दिल से जीनहार[हर्गिज़] ना था कोई ऐसे मकां से उठता है बैठने कौन दे है फिर उनको जो तेरे आस्तां[चोखट] से उठता है यूँ उठे आह उस गली से हम जैसे कोई जहाँ से उठता है इश्क एक "मीर" भारी पत्थर है कब यें तुझ नातवां[कमज़ोर] से उठता है

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