Tuesday, March 31, 2009

zafar sahbai ki shayyiri

यह दुनिया एक ख्वाबों की ज़मीन है
यहाँ सब कुछ है और कुछ भी नहीं है
तेरे छूने से पहले वाहमा था
मुझे अब अपने होने का यकीं है
जो सोचो तो सुलग उठती हैं साँसें
तेरा एहसास कितना आतिशीं है
मोहाजिर बन गए हैं मेरे आंसू
न आँचल है न कोई आस्तीन है
जगह दूँ कैसे तुझको अपने दिल में
यहाँ तो तेरा गम मसनद-नशीं ही
मेरे चेहरे पे कोई झुक रहा है
यह लम्हा तो खुदा जैसा हसीं है

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