Thursday, April 30, 2009

unknown

शख्सियत है कि सिर्फ गाली है
जाने किस शख्स ने उछाली है
शहर दर शहर हाथ उगते हैं
कुछ तो है जो हर एक सवाली[मांगने वाला] है
जो भी हाथ आये टूट कर चाहो
हार के यह रविश[आदत] निकाली है
मीर का दिल कहाँ से लाओगे
ख़ून की बूंद तो बचा ली है
जिस्म में भी उतर के देख लिया
हाथ खाली था अब भी खाली है
रेशा रेशा उधेड़ कर देखो
रोशनी किस जगह से काली है
दिन ने चेहरा खरोंच डाला था
जब तो सूरज पे ख़ाक डाली है

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