Thursday, April 30, 2009

faiz ki shayyiri

फिर कोई आया दिल-ए-ज़ार, नहीं कोई नहीं
राहरव[मुसाफिर] होगा, कहीं और चला जाएगा
ढल चुकी रात, बिखरने लगा तारों का गुबार
लड़खडाने लगे एवानों में ख्वाबीदा चिराग़
सो गई रास्ता तक तक के हर एक रहगुज़र
अजनबी ख़ाक ने धुंधला दिए कदमों के सुराग़
गुल करो शम'एं, बढ़ाओ मय-ओ-मीना-ओ-अयाग़
अपने बेख्वाब किवाडों को मुकफ्फल[बंद] कर लो
अब यहाँ कोई नहीं , कोई नहीं आयेगा...

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