nikala mujhko zannat se fareb-e-zindgi de kar.............. diya phir shaunq zannat ka ye hairani nahi jaati.......
Wednesday, May 13, 2009
unknown
कभी मैं गुमनाम तो कभी बदनाम हो जाता हूँ
गम-ए-इश्क का इश्तिहार तो कभी अख़बार हो जाता हूँ
जहाँ चर्चा होता है तेरा मेरा भी ज़ीक्र छिड़ जाता है
सब चाँद कहते हैं तुझे और मैं दाग हो जाता हूँ
हर शब दफ़्न कर आता हूँ एक ख्वाब नया
हर सहर मैं फिर एक सब्ज़ मज़ार हो जाता हूं
अकेला मैं कहाँ कभी, हज़ार गम जमा हैं मुझमें
जहाँ कहीं भी रुक जाऊं वहीं कारवाँ हो जाता हूँ
कतरा-ए-आब नहीं की समंदर में गर्क हो जाऊं
कतरा-ए-अश्क हूँ मैं, खुद समंदर हो जाता हूँ
मिटा दे मुझे की 'मायूस' के मिट जाने का दिन है
मुश्किल था कभी मैं तेरी, आज आसान हो जाता हूँ
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