Tuesday, May 19, 2009

qamar ki shayyiri

मुहब्बत सरफिरी खुद है, कहाँ मअयार देखगी
है इस की ज़द्द में किस का सर, कहाँ तलवार देखेगी
ये तो मर्ज़ी है सूरज की, बना दे जिस तरफ साये
किधर छाओं ज़रूरी है, कहाँ दीवार देखगी
खबर कया उसको गुलशन की, सबा की, मौशम-ए-गुल की
जो खुद दीपक सा पैकर है, कहाँ मल्हार देखेगी
उसे दो आईने ऐसे, करें जो गुफ्तगू उससे
'कमर' फुर्सत नहीं उसको तो पायल झनझनाने से
हमारे दिल के बजते हैं कहाँ वो तार देखेगी

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