Sunday, May 31, 2009

saeed raahi ki shayyiri

क्या जाने कब कहाँ से चुराई मेरी ग़ज़ल
उस शोख ने मुझी को सुनाई मेरी ग़ज़ल
पूछा जो मैंने उससे के है कौन खुश-नसीब
आंखों से मुस्कुरा के लगायी मेरी ग़ज़ल
एक-एक लफ्ज़ बन के उड़ा था धुआं-धुआं
उसने जो गुनगुना के सुने मेरी ग़ज़ल
हर एक शख्स मेरी ग़ज़ल गुनगुनाएं है
‘राही’ तेरी ज़ुबाँ पे न आई मेरी ग़ज़ल

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