Sunday, May 31, 2009

shehzad ahmed ki shayyiri

अपनी तस्वीर को आंखों से लगता क्या है
इक नज़र मेरी तरफ़ देख तेरा जाता क्या है
मेरी रुसवाई में तू भी है बराबर का शरीक
मेरे किस्से मेरे यारों को सुनाता क्या है
पास रहकर भी न पहचान सका तू मुझको
दूर से देख कर अब हाथ हिलाता क्या है
सफर-ए-शौक़ में क्यूँ कांपते हैं पाँव तेरे
दूर से देख कर अब हाथ उठाता क्या है
उम्र भर अपने गिरेबान से उलझाने वाले
तू मुझे मेरे साए से डराता क्या है
मर गए प्यास के मारे तो उठा अब्र-ए-करम
बुझ गई बज्म तो अब शमा जलाता क्या है
मैं तेरा कुछ भी नहीं हूँ, मगर इतना तो बता
देख कर मुझको तेरे जेहन में आता क्या है

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