Sunday, May 31, 2009

unknown

अब दोस्त, दोस्त ही बन कर रहे तोः अच्छा है
अब प्यार ना बन जाये खाद्चा है
तेरी कुर्बतों से बेहतर अपनी दूरी अच्छी
तेरा वजूद ना पमेल हो यें खदचा है
तुम्हे भुलाना अब मेरी जिंदगी का मकसद है
मेरी यादों को ठे़स पोहंचने का खदचा है
अपने दीवान को तेरे नाम करता हूँ मैं
मेरे आशरों को लूट जाने का खदचा है
तुम किसी और से मुनसिब हो भी सकती हो मगर
मेरी जात को बिखर जाने का खदचा है
तेरी डोली उठे मेरे ज़नाजे से थोडा दूर मगर
तू खुश है के नही मुझे इस का खदचा है
कितनी खुशियाँ बिखरी हैं तेरे घर के दरीचों पे
पर मेरी तरफ़ तो मातम हो जाने का खदचा है

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