Sunday, May 31, 2009

unknown

याद तेरी दिलाएं फिजायें तो क्या करें
अश्क नज़रों को सजाएँ तो क्या करें
फसल-ऐ-गुल में भी भुला देते गम उसका
फ़िर के तस्वीर उनकी बनायें तो क्या करें
मिलती है सज़ा ज़ख्म दिखने की भी यहाँ
फिर दर्द-ऐ-दिल न छुपायें तो क्या करें
कह्ते है लोग तमन्नाएँ लिए जीते रहो 'घायल'
जब तमन्ना ही हमें मिटायें तो क्या करें
सच…!
साँसें यूँ जिस्म को सताये तो क्या करें
हाँ अश्क नज़रों को सताये तो क्या करें

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