Thursday, January 22, 2009

nizaam ki shayyiri

मौसम-ए-गम गुज़र न जाये कहीं
शब में सूरज निकल न आये कहीं
हर घडी दिल में है ये अंदेशा
कोई अनहोनी हो न जाये कहीं
फिर मनादी[anouncemnt]हुई है बस्ती में
कोई घर छोड़ कर न जाये कहीं
ये नया डर हुआ सफ़र में मुझे
रास्ता ख़तम हो न जाये कहीं
कया बताऊँ वो क्यूँ परेशाँ है
मुझको ढूँढे कहीं ?छिपाये कहीं ?
सपना सपना है,ख्वाब खुशबू का
झोंका-झोंका बिखर न जाये कहीं
दूर ही रक्खो रौशनी से उसे
अपने साये से डर न जाये कहीं
बाद मुदत के तू मिला है 'निजाम'
डर है फिर से बिछड़ न जाये कहीं

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