Saturday, January 17, 2009

ustad qamar jalalvi ki shayyiri

ना आयें वो तो कोई पैगाम आ जाये
वोही अपना है आड़े वक़त पे जो काम आ जाये
शब्-ए-फुरक़त क़यामत ऐ ! दिल-ए-नाकाम आ जाये
अगर जल कर भड़कने पर चिराग-ए-शाम आ जाये
कहीं पे बैठ जा कया देखता है बज्म-ए-साकी में
खुदा मालूम किस तरफ से जाम आ जाये
फ़साने कह रहे है आज वो अपनी मुहबत का
"कमर" इक दिन सफ़र में खुद हिलाल-ए-ईद बन जाओं
अगर कब्जे में मेरे गर्दिश-ए-अय्याम आ जाये

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