Saturday, May 16, 2009

faiz ki shayyiri

आ कि वाबस्ता हैं उस हुस्न की यादें तुझ से
जिसने इस दिल को परीख़ाना बना रखा था
जिसकी उल्फ़त में भुला रखी थी दुनिया हमने
दहर को दहर का अफ़साना बना रखा था

आशना हैं तेरे क़दमों से वह राहें जिन पर
उसकी मदहोश जवानी ने इनायत की है
कारवां गुज़रे हैं जिनसे इसी र’अनाई के
जिसकी इन आंखों ने बेसूद इबादत की है

तुझ से खेली हैं वह मह्बूब हवाएं जिन में
उसके मलबूस की अफ़सुरदा महक बाक़ी है
तुझ पे भी बरसा है उस बाम से मेह्ताब का नूर
जिस में बीती हुई रातों की कसक बाक़ी है

तू ने देखी है वह पेशानी वह रुख़सार वह होंट
ज़िन्दगी जिन के तसव्वुर में लुटा दी हमने
तुझ पे उठी हैं वह खोई खोई साहिर आंखें
तुझको मालूम है क्यों उम्र गंवा दी हमने

हम पे मुश्तरका हैं एह्सान ग़मे उल्फ़त के
इतने एह्सान कि गिनवाऊं तो गिनवा न सकूं
हमने इस इश्क़ में क्या खोया क्या सीखा है
जुज़ तेरे और को समझाऊं तो समझा न सकूं

आजिज़ी सीखी ग़रीबों की हिमायत सीखी
यास ओ हिर्मां के दुख दर्द के म’आनि सीखे
ज़ेर द्स्तों के मसाएब को समझना सीखा
सर्द आहों के, रुख़े ज़र्द के म’आनी सीखे

जब कहीं बैठ के रोते हैं वह बेकस जिनके
अश्क आंखों में बिलकते हुए सो जाते हैं
नातवानों के निवालों पे झपटते हैं उक़ाब
बाज़ू तौले हुए मन्डलाते हुए आते हैं

जब कभी बिकता है बाज़ार में मज़दूर का गोश्त
शाहराहों पे ग़रीबों का लहू बह्ता है
आग सी सीने में रह रह के उबलती है न पूछ
अपने दिल पर मुझे क़ाबू ही नहीं रहता है

No comments:

Post a Comment

wel come