Thursday, April 30, 2009

ubaidullah alim ki shayyiri

कुछ दिन तो बसो मेरी आँखों में
फिर ख्वाब अगर हो जाओ तो क्या
कोई रंग तो दो मेरे चेहरे को
फिर ज़ख्म अगर महकाओ तो क्या
जब हम ही न महके फिर साहब
तुम बाद-ए-सबा कहलाओ तो क्या
एक आईना था, सो टूट गया
अब खुद से अगर शरमाओ तो क्या
दुनिया भी वही और तुम भी वही
फिर तुमसे आस लगाओ तो क्या
मैं तनहा था, मैं तनहा हूँ
तुम आओ तो क्या, न आओ तो क्या
जब देखने वाला कोई नहीं
बुझ जाओ तो क्या, गहनाओ तो क्या
एक वहम है ये दुनिया इसमें
कुछ खो'ओ तो क्या और पा'ओ तो क्या
है यूं भी ज़ियाँ और यूं भी ज़ियाँ
जी जाओ तो क्या मर जाओ तो क्या

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