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Saturday, June 6, 2009

khozema husaini husaini ki shayyiri

न शिकस्ता कल्ब होते न फिराक-ए-यार होता
गर हामी-ए-मोहब्बत परवरदिगार होता
तेरा नाम जान-ए-जानाँ यूँ न आशकार होता
मुझे जू-ए-अश्क-ए-ग़म पर इखित्यार होता
तेरी दीद ही सबब है मेरी जान की रुखसती का
अभी और कुछ ठहरता अगर इंतज़ार होता
क़त्ल-ए-अना न करता पेश-ए-शमा पतंगा
कमज़र्फ़ डूब मरता गर बा-वकार होता
तेरी गली में आ कर सहते जहाँ के पत्थर
पैमान-ए-रुनुमाई पे जो ऐतबार होता
वेह्शत-जूनून-सौदा सरमाया-ए-मुहब्बत
ऐ काश तू भी मुझसा सरमायादार होता
आदाब-ए-बज्म-ए-जानाँ ने कर दिया मुकैयद
वरना ज़हूर-ए-उल्फत दीवानावार होता
हंस कर मैं जान देता तेरी लओ में पर जलाकर
जब ख़ुद को तू जलाता तुझ पर निसार होता

काट'आ

ता उमर कुछ न सिखा किया वज़न ही काफिया किया
क्यूँकर सुखनवारों में अपना शुमार होता
मर कर मिली है फुर्सत कुछ सीखते 'हुसैनी'
जो करीब-ए-दाग़-ओ-गालिब अपना मजार होता

wel come