न दूँगा दिल कभी उनको, यह रोज कहता था
वोह आज ले भी गया और 'ज़फर" से कुछ न हुआ
nikala mujhko zannat se fareb-e-zindgi de kar.............. diya phir shaunq zannat ka ye hairani nahi jaati.......
Showing posts with label बहादुर शाह ज़फर. Show all posts
Showing posts with label बहादुर शाह ज़फर. Show all posts
Sunday, June 7, 2009
bahadur shah zafar ki shayyiri
भली करते बुराई होती है
मुँह से निकली पराई होती है
ऐ ज़फर ! मेरा यार जिधर फिरता है
उस तरफ़ सब खुदाई होती है
मुँह से निकली पराई होती है
ऐ ज़फर ! मेरा यार जिधर फिरता है
उस तरफ़ सब खुदाई होती है
Thursday, June 4, 2009
bahadur shah zafar ki shayyiri
वो बेहिसाब जो पी के कल शराब आया
अगरचे मस्त था मैं पर मुझे हिजाब आया
इधर ख्याल मेरे दिल में जुल्फ का गुज़रा
उधर वो खता हुआ दिल में पेच-ओ-ताब आया
ख्याल किस का समाया है दीदा-ओ-दिल में
न दिल को चैन मुझे और न शब् को ख्वाब आया
अगरचे मस्त था मैं पर मुझे हिजाब आया
इधर ख्याल मेरे दिल में जुल्फ का गुज़रा
उधर वो खता हुआ दिल में पेच-ओ-ताब आया
ख्याल किस का समाया है दीदा-ओ-दिल में
न दिल को चैन मुझे और न शब् को ख्वाब आया
bahadur shah zafar ki shayyiri
तुम न आये एक दिन का वादा कर दो दिन तलक
हम पड़े तड़पा किए दो दो पहर दो दिन तलक
दर्द-ए-दिल अपना सुनाता हूँ कभी जो एक दिन
रहता है उस नाज़नीन को दर्द-ए-सर दो दिन तलक
देखते हैं ख्वाब में जिस दिन कीसू की चश्म-ए-मस्त
रहते हैं हम दो जहाँ से बेखबर दो दिन तलक
गर यकीन हो ये हमें आएगा तू दो दिन के बाद
तो जियें हम और इस उम्मीद पर दो दिन तलक
क्या सबब क्या वास्ता क्या काम था बतलाईये
घर से जो निकल न अपने तुम 'ज़फर' दो दिन तलक
हम पड़े तड़पा किए दो दो पहर दो दिन तलक
दर्द-ए-दिल अपना सुनाता हूँ कभी जो एक दिन
रहता है उस नाज़नीन को दर्द-ए-सर दो दिन तलक
देखते हैं ख्वाब में जिस दिन कीसू की चश्म-ए-मस्त
रहते हैं हम दो जहाँ से बेखबर दो दिन तलक
गर यकीन हो ये हमें आएगा तू दो दिन के बाद
तो जियें हम और इस उम्मीद पर दो दिन तलक
क्या सबब क्या वास्ता क्या काम था बतलाईये
घर से जो निकल न अपने तुम 'ज़फर' दो दिन तलक
bahadur shah zafar ki shayyiri
थे कल जो अपने घर में वो मेहमान कहाँ हैं
जो खो गए हैं या रब वो औसान कहाँ हैं
आंखों में रोते रोते नम भी नहीं अब तो
थे मौजज़न जो पहले वो तुफ्फान कहाँ हैं
कुछ और ढब अब तो हमें लोग देखते हैं
पहले जो ऐ 'ज़फर' थे वो इंसान कहाँ हैं
जो खो गए हैं या रब वो औसान कहाँ हैं
आंखों में रोते रोते नम भी नहीं अब तो
थे मौजज़न जो पहले वो तुफ्फान कहाँ हैं
कुछ और ढब अब तो हमें लोग देखते हैं
पहले जो ऐ 'ज़फर' थे वो इंसान कहाँ हैं
bahadur shah zafar ki shayyiri
न किसी की आँख का नूर हूँ
न किसी के दिल का करार हूँ
जो किसी के काम न आ सके
मैं वो एक मुश्त-ए-गुबार हूँ
न तो मैं किसी का हबीब हूँ
न तो मैं किसी का रकीब हूँ
जो बिगड़ गया वो नसीब हूँ
जो उजाड़ गया वो दयार हूँ
मेरा रंग रूप बिगड़ गया
मेरा यार मुझसे बिछड़ गया
जो चमन फिजां में उजाड़ गया
मैं उसी की फसल-ए-बहार हूँ
पाये फातेहा कोई आए क्यूँ
कोई चार फूल चदाये क्यूँ
कोई आ के शम्मा जलाए क्यूँ
मैं वो बेकसी का मजार हूँ
मैं नहीं हूँ नगमा-ए-जान फिशां
मुझे सुन के कोई करेगा क्या
मैं पड़े बरोग़ की हूँ सदा
मैं बड़े दुःख की पुकार हूँ
न किसी के दिल का करार हूँ
जो किसी के काम न आ सके
मैं वो एक मुश्त-ए-गुबार हूँ
न तो मैं किसी का हबीब हूँ
न तो मैं किसी का रकीब हूँ
जो बिगड़ गया वो नसीब हूँ
जो उजाड़ गया वो दयार हूँ
मेरा रंग रूप बिगड़ गया
मेरा यार मुझसे बिछड़ गया
जो चमन फिजां में उजाड़ गया
मैं उसी की फसल-ए-बहार हूँ
पाये फातेहा कोई आए क्यूँ
कोई चार फूल चदाये क्यूँ
कोई आ के शम्मा जलाए क्यूँ
मैं वो बेकसी का मजार हूँ
मैं नहीं हूँ नगमा-ए-जान फिशां
मुझे सुन के कोई करेगा क्या
मैं पड़े बरोग़ की हूँ सदा
मैं बड़े दुःख की पुकार हूँ
bahadur shah zafar ki shayyiri
खुलता नहीं है हाल किसी पर कहे बगैर
पर दिल की जान लेते हैं दिलबर कहे बगैर
मैं क्यूँकर कहूँ तुम आओ की दिल की कशिश से वो
आयेंगे दौडे आप मेरे घर कहे बगैर
क्या ताब क्या मजाल हमारी की बोसा लें
लब को तुम्हारे लब से मिलाकर कहे बगैर
बेदर्द तू सुने न सुने लेक[लेकिन] दर्द-ऐ-दिल
रहता नहीं है आशिक-ए-मुज़्तर[anxious] कहे बगैर
तकदीर के सिवा नहीं मिलता कहीं से भी
दिलवाता ऐ 'ज़फर' है मुक़द्दर कहे बगैर
पर दिल की जान लेते हैं दिलबर कहे बगैर
मैं क्यूँकर कहूँ तुम आओ की दिल की कशिश से वो
आयेंगे दौडे आप मेरे घर कहे बगैर
क्या ताब क्या मजाल हमारी की बोसा लें
लब को तुम्हारे लब से मिलाकर कहे बगैर
बेदर्द तू सुने न सुने लेक[लेकिन] दर्द-ऐ-दिल
रहता नहीं है आशिक-ए-मुज़्तर[anxious] कहे बगैर
तकदीर के सिवा नहीं मिलता कहीं से भी
दिलवाता ऐ 'ज़फर' है मुक़द्दर कहे बगैर
bahadur shah zafar ki shayyiri
हम तो चलते हैं लो खुदा हाफिज़
बुत_कदा का बुतों खुदा हाफिज़
कर चुके तुम नसीहतें हमको
जाओ बस नासेहो खुदा हाफिज़
बार यही है हमेशा ज़ख्म पे ज़ख्म
दिल का चारागारों खुदा हाफिज़
आज है कुछ ज़यादा बेताबी
दिल-ए-बेताब को खुदा हाफिज़
क्यूँ हिफाज़त हम और की ढूँढें
हर नफस जब की है खुदा हाफिज़
चाहे रुखसत हो राह-ए-इश्क में अक्ल
ऐ 'ज़फर' जाने दो खुदा हाफिज़
बुत_कदा का बुतों खुदा हाफिज़
कर चुके तुम नसीहतें हमको
जाओ बस नासेहो खुदा हाफिज़
बार यही है हमेशा ज़ख्म पे ज़ख्म
दिल का चारागारों खुदा हाफिज़
आज है कुछ ज़यादा बेताबी
दिल-ए-बेताब को खुदा हाफिज़
क्यूँ हिफाज़त हम और की ढूँढें
हर नफस जब की है खुदा हाफिज़
चाहे रुखसत हो राह-ए-इश्क में अक्ल
ऐ 'ज़फर' जाने दो खुदा हाफिज़
bahadur shah zafar ki shayyiri
बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थी
जैसी अब है तेरी महफ़िल कभी ऐसी तो न थी
ले गया छीन के कौन आज तेरा सबर-ओ-करार
बेक़रारी तुझे ऐ दिल कभी ऐसी तो न थी
चश्म-ए-कातिल मेरी दुश्मन थी हमेशा लेकिन
जैसे अब हो गई कातिल कभी ऐसी तो न थी
उनकी आँखों ने खुदा जाने किया क्या जादू
के तबियत मेरी माएल कभी ऐसी तो न थी
अक्स-ए-रुख-ए-यार ने किस से है तुझे चमकाया
तब तुझ में मह-ए-कामिल कभी ऐसी तो न थी
क्या सबब तू जो बिगड़ता है "ज़फर" से हर बर
खु तेरी हर-ए-शामिल कभी ऐसी तो न थी
जैसी अब है तेरी महफ़िल कभी ऐसी तो न थी
ले गया छीन के कौन आज तेरा सबर-ओ-करार
बेक़रारी तुझे ऐ दिल कभी ऐसी तो न थी
चश्म-ए-कातिल मेरी दुश्मन थी हमेशा लेकिन
जैसे अब हो गई कातिल कभी ऐसी तो न थी
उनकी आँखों ने खुदा जाने किया क्या जादू
के तबियत मेरी माएल कभी ऐसी तो न थी
अक्स-ए-रुख-ए-यार ने किस से है तुझे चमकाया
तब तुझ में मह-ए-कामिल कभी ऐसी तो न थी
क्या सबब तू जो बिगड़ता है "ज़फर" से हर बर
खु तेरी हर-ए-शामिल कभी ऐसी तो न थी
bahadur shah zafar ki shayyiri
लगता नही है दिल मेरा उजडे दयार में
किस की बनी है आलम-ए-न_पायेदार में
कह दो इन हसरतों से कहीं और जा बसें
इतनी जगह कहाँ है दिल-ऐ-दागदार में
उमर-ए-दराज़ मांग के लाये थे चार दिन
दो आरजू में कट गए दो इंतज़ार में
कितना है बद नसीब 'ज़फर' के दफन के लिए
दो गज ज़मीं भी न मिल सकी कू-ऐ-यार में
किस की बनी है आलम-ए-न_पायेदार में
कह दो इन हसरतों से कहीं और जा बसें
इतनी जगह कहाँ है दिल-ऐ-दागदार में
उमर-ए-दराज़ मांग के लाये थे चार दिन
दो आरजू में कट गए दो इंतज़ार में
कितना है बद नसीब 'ज़फर' के दफन के लिए
दो गज ज़मीं भी न मिल सकी कू-ऐ-यार में
bahadur shah zafar ki shayyiri
यार था गुल-जार था बाद-ए-सबा थी मैं न था
लैयाक-ए-पा-बोस-ए-जान किया हिना थी मैं न था
मैंने पुछा क्या हुआ वो आप का हुस्न-ओ-शबाब
हंस के बोले वो सनम, शान-ए-खुदा थी मैं न था
मैं सिसकता रह गया और मर गए फरहद-ओ-क़ैस
क्या उन्ही दोनों के हिस्से में कजा थी मैं न था
लैयाक-ए-पा-बोस-ए-जान किया हिना थी मैं न था
मैंने पुछा क्या हुआ वो आप का हुस्न-ओ-शबाब
हंस के बोले वो सनम, शान-ए-खुदा थी मैं न था
मैं सिसकता रह गया और मर गए फरहद-ओ-क़ैस
क्या उन्ही दोनों के हिस्से में कजा थी मैं न था
Friday, May 22, 2009
bahadur shah zafar ki shayyiri
लगता नहीं है दिल मेरा उजड़े दयार में
किसकी बनी है आलम-ए-ना-पायदार में
कह दो इन हसरतों से कहीं और जा बसें
इतनी जगह कहाँ है दिल-ए-दागदार में
उम्र-ए-दराज़ माँग के लाए थे चार दिन
दो आरजू में कट गए, दो इंतज़ार में
कितना है बदनसीब ज़फर दफ़न के लिए
दो गज ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में
किसकी बनी है आलम-ए-ना-पायदार में
कह दो इन हसरतों से कहीं और जा बसें
इतनी जगह कहाँ है दिल-ए-दागदार में
उम्र-ए-दराज़ माँग के लाए थे चार दिन
दो आरजू में कट गए, दो इंतज़ार में
कितना है बदनसीब ज़फर दफ़न के लिए
दो गज ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में
Subscribe to:
Posts (Atom)