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Friday, June 5, 2009

nasir kazmi ki shayyiri

गर्दिशों के है मारे हुए ना, दुश्मनों के सताए हुए है
जितने भी ज़ख्म है मेरे दिल पर, दोस्तों के लगाये हुए है
जब से देखा तेरा क़द-ओ-कामत, दिल पे टूटी हुई है क़यामत
हर बला से रहे तू सलामत, दिन जवानी के आए हुए है
और दे मुझको दे और साकी, होश रहता है थोड़ा सा बाकी
आज तल्खी भी है इन्तहा की, आज वो भी पराये हुए है
कल थे आबाद पहलु में मेरे, अब है गैरों में डेरे
मेरी महफिल में कर के अंधेरे, अपनी महफिल सजाये हुए है
अपने हाथों से खंजर चला कर, कितना मासूम चेहरा बना कर
अपने कन्धों पे अब मेरा कातिल, मेरी मय्यत उठाये हुए है
मेहवाशों को वफ़ा से क्या मतलब, इन बुतों को खुदा से क्या मतलब
इनकी मासूम नज़रों ने 'नासिर', लोग पागल बनाये हुए है
गर्दिशों के है मारे हुए ना, दुश्मनों के सताए हुए है
जितने भी ज़ख्म है मेरे दिल पर, दोस्तों के लगाये हुए है

nasir kazmi ki shayyiri

दुःख की लहर ने छेड़ा होगा
याद ने कंकर फेंका होगा
आज तो मेरा दिल कहता है
तू इस वक़्त अकेला होगा
मेरे चूमे हुए हाथों से
औरों को ख़त लिखता होगा
भीग चली अब रात की पलकें
तू अब थक कर सोया होगा
रेल की गहरी सीटी सुन कर
रात का जंगल गूंजा होगा
शहर के खाली इस्टेशन पर
कोई मुसाफिर उतरा होगा
आँगन में फिर चिडियां बोलें
तू अब सो कर उठता होगा
यादों की जलती शबनम से
फूल सा मुखडा धोया होगा
मोती जैसी शक्ल बनाकर
आईने को ताकता होगा
शाम हुई अब तू भी शायद
अपने घर को लौटा होगा
नीली धुंधली खामोशी में
तारों की धुन सुनाता होगा
मेरा साथी शाम का तारा
तुझसे आँख मिलाता होगा
शाम के चलते हाथ ने तुझको
मेरा सलाम तो भेजा होगा
प्यासी कुर्लाती[restless] कून्जों[bird] ने
मेरा दुःख तो सुनाया होगा
मैं तो आज बहुत रोया हूँ
तू भी शायद रोया होगा
‘नासिर’ तेरा मीत पुराना
तुझको याद तो आता होगा

Thursday, June 4, 2009

nasir kazmi ki shayyiri

कौन इस राह से गुज़रता है
दिल यूँही इंतज़ार करता है
देख कर भी न देखने वाले
दिल तुझे देख देख डरता है
शहर-ए-गुल में गई है सारी रात
देखिये दिन कहाँ गुज़रता है
धयान की सीडियां[stairs] पे पिछले पहर
कोई चुपके से पाँव धरता है
दिल तो मेरा उदास है 'नासिर'
शहर क्यूँ साएँ साएँ करता है

nasir kazmi ki shayyiri

दिल में एक लहर सी उठी है अभी
कोई ताज़ा हवा चली है अभी
शोर बरपा है खाना-ए-दिल में
कोई दीवार सी गिरी है अभी
कुछ तो नाज़ुक मिजाज हैं हम भी
और ये चोट भी नई है अभी
भरी दुनिया में जी नहीं लगता
जाने किस चीज़ की कमी है अभी
तू शरीक-ए-सुखन नहीं है तो क्या
हम-सुखन तेरी खामोशी है अभी
याद के बे-निशाँ जज़ीरों से
तेरी आवाज़ आ रही है अभी
शहर के बे-चिराग गलियों में
जिंदगी तुझको ढूंढती है अभी
सो गए लोग उस हवेली के
एक खिड़की मगर खुली है अभी
तुम तो यारो अभी से उठ बैठे
शहर में रात जागती है अभी
वक्त अच्छा भी आएगा 'नासिर'
ग़म न कर जिंदगी पड़ी है अभी

nasir kazmi ki shayyiri

वो दिल नवाज़ है लेकिन नज़र शनास नही
मेरा इलाज़ मेरे चारागर के पास नही
तड़प रहे हैं ज़बान पर कई सवाल मगर
मेरे लिए कोई शयां-ए-अलमास नही
तेरे जलु में भी दिल काँप उठता है
मेरे मिजाज़ को आसौदगी भी रास नही
कभी कभी जो तेरे कर्ब में गुज़रे थे
अब उन् दिनों का तसव्वर भी मेरे पास नही
गुज़र रहे हैं अजाब मरहलों से दीदा-ओ-दिल
सेहर की आस तो है जिंदगी की आस नही
मुझे यह डर है तेरी आरजू न मिट जाए
बोहत दिनों से तबियत मेरी उदास नही

Tuesday, June 2, 2009

nasir kazmi ki shayyiri

दिल धड़कने का सबब याद आया
वो तेरी याद थी, अब याद आया
आज मुश्किल था संभल न.. ऐ दोस्त
तू मुसीबत में अजब याद आया
हाल-ए-दिल हम भी सुनते लेकिन
जब वो रुखसत हुए, तब याद आया
दिन गुज़ारा था बड़ी मुश्किल से
फिर तेरा वादा-ए-शब् याद आया
फिर कई लोग नज़र से गुज़रे
फिर कोई शेहर-ए-तरब याद आया
बैठ कर साया-ए-गुल में 'नासिर'
हम बहुत रोये, वो जब याद आया

nasir kazmi ki shayyiri

दिल में और तो क्या रखा है
तेरा दर्द छुपा रखा है
इतने दुखों की तेज़ हवा में
दिल का दीप जला रखा है
इस नगरी के कुछ लोगों ने
दुःख का नाम दावा रखा है
वादा-ए-यार की बात न छेडो
ये धोखा भी खा रखा है
भूल भी जाओ बीती बातें
इन् बातों में क्या रखा है
चुप चुप क्यूँ रहते हो 'नासिर'
यह क्या रोग लगा रखा है

Monday, June 1, 2009

nasir kazmi ki shayyiri

आज तो बे_सबब उदास है जी
इश्क होता तो कोई बात भी थी
जलता फिरता हूँ क्यूँ दो_पहरों में
जाने क्या चीज़ खो गई मेरी
वहीं फिरता हूँ मैं भी खाक़ बसर
इस भरे शहर में है एक गली
छुपता फिरता है इश्क दुनिया से
फेलाती जा रही है रुसवाई
हम_नशीं क्या कहूँ के वो क्या है
छोड़ ये बात नींद उड़ने लगी
आज तो वो भी कुछ खामोश सा था
मैंने भी उसे कोई बात की
एक दम उसके हाथ चूम लिए
ये मुझे बैठे बैठे क्या सूझी
तू जो इतना उदास है 'नासिर'
तुझे क्या हो गया बता तो सही

Friday, May 29, 2009

nasir kazmi ki shayyiri

किस्से हैं खामोशी में निहाँ और तरह के
होतें हैं ग़म-ऐ-दिल के बयाँ और तरह के
थी और ही कुछ बात के था ग़म भी गवारा
हालत हैं अब दर पेयी जन और तरह के
ऐ रह रो-ऐ-रहे वफ़ा देख के चलना
इस रह में हैं सन-ऐ-गराँ और तरह के
खटका है जुदाई के न मिलने की तमन्ना
दिल को है मेरे वहम-ओ-गुमां और तरह के
दुनिया को नही ताब मेरे दर्द की या रब
दे मुझको असलीब-एफ़ूक़न और तरह के
हस्ती का भरम खोल दिए एक नज़र ने
अब अपनी नज़र में हैं जहाँ और तरह के
लश्कर है न परचम है न दौलत है न सरवत
हैं खाक़ नशीनों के निशान और तरह के
मरता नही अब कोई किसी के लिए नासिर
थे अपने ज़माने के जवान और तरह के

nasir kazmi ki shayyiri

दिल में आओ अजीब घर है ये
उमर-ऐ-रफ्ता की रहगुज़र है ये
संग-ऐ-मंजिल से क्यूँ न सर फोडूँ
हासिले ज़हमत-ऐ-सफत है ये
रंज-ऐ-गुरबत के नाज़ उठता हूँ
मैं हूँ अब और दर्द-ऐ-सर ये है
अभी रास्तों की धुप छाओं न देख
हमसफ़र दूर का सफर है ये
दिन निकलने में कोई देर नही
हम न सो जाए अब तोह डर है ये
कुछ नए लोग आने वाले हैं
गरम अब शहर में ख़बर है ये
अब कोई काम भी करे 'नासिर'
रोना धोना तोह उमर भर है ये

nasir kazmi ki shayyiri

जुर्म-ऐ-इनकार की सज़ा ही दे
मेरे हक में भी कुछ सुना ही दे
शौक़ में हम नही ज़यादा तलब
जो तेरा नाज़-ऐ-कम निगाही दे
तुने तारों से शब् की मांग भरी
मुझको एक अश्क-ए-सुबहेगाही दे
तुने बंजर ज़मीन को फूल दिए
मुझको एक ज़ख्म-ऐ-दिल कोष ही दे
बस्तिओं को दिए हैं तुने चिराह
दस्त-ऐ-दिल को भी कोई रही दे
उम्र भर की नवागरी का सिला
ऐ खुदा कोई हम_नवा ही दे
ज़र्द रू हैं वर्क ख्यालों में
ऐ शब्-ऐ-हिज्र कुछ सियाही दे
गर मजाल-ऐ-सुखन नही 'नासिर'
लब-ऐ-खामोश से गवाही दे

Friday, May 22, 2009

nasir kazmi ki shayyiri

नीयत-ए-शौक़ भर ना जाये कहीं
तू भी दिल से उतर ना जाये कहीं
आज देखा है तुझ को देर के बाद
आज का दिन गुज़र ना जाये कहीं
न मिला कर उदास लोगों से
हुस्न तेरा बिखर ना जाये कहीं
आरजू है कि तू यहाँ आये
और फिर उमर भर ना जाये कहीं
जी जलाता हूँ और सोचता हूँ
राएगां यह नहर ना जाये कहीं
आओ कुछ देर रो ही लें नासिर
फिर यह दरिया उतर ना जाये कहीं

नासिर काज़मी

Saturday, May 16, 2009

nasir kazmi ki shayyiri

किसी कली ने भी देखा आंख भर के मुझे
गुज़र गई जरस--गुल उदास करके मुझे

मैं सो रहा था किसी याद के शबिस्तां में
जगा के छोड़ गए क़ाफ़्ले सहर के मुझे

मैं रो रहा था मुक़द्दर की सख़्त राहों में
उड़ा ले गए जादू तेरी नज़र के मुझे

मैं तेरे दर्द की तुग़्यानियों में डूब गया
पुकारते रहे तारे उभर उभर के मुझे

तेरे फ़िराक़ की रातें कभी भूलेंगी
मज़े मिल इन्हीं रातों में उमर भर के मुझे

ज़रा सी देर ठहरने दे ग़म--दुनिया
बुला रहा है कोई बाम से उतर के मुझे

फिर आज आई थी एक मौज--हवाए तरब
सुना गई है फ़साने इधर उधर के मुझे


Saturday, April 25, 2009

nasir kazmi ki shayyiri

कुछ तो नज़ुकमिजाज़ हैं हम भी
और यें चोट भी नई है अभी

wel come