Friday, May 29, 2009

nasir kazmi ki shayyiri

दिल में आओ अजीब घर है ये
उमर-ऐ-रफ्ता की रहगुज़र है ये
संग-ऐ-मंजिल से क्यूँ न सर फोडूँ
हासिले ज़हमत-ऐ-सफत है ये
रंज-ऐ-गुरबत के नाज़ उठता हूँ
मैं हूँ अब और दर्द-ऐ-सर ये है
अभी रास्तों की धुप छाओं न देख
हमसफ़र दूर का सफर है ये
दिन निकलने में कोई देर नही
हम न सो जाए अब तोह डर है ये
कुछ नए लोग आने वाले हैं
गरम अब शहर में ख़बर है ये
अब कोई काम भी करे 'नासिर'
रोना धोना तोह उमर भर है ये

No comments:

Post a Comment

wel come