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Monday, June 1, 2009

qamar ki shayyiri

फिर कहोगे तुम मुकाबिल को सज़ा के वास्ते
आईने को हाथ से रख दो खुदा के वास्ते
काबा--दिल को ताको तुम जफ़ा के वास्ते
बुतों ये घर खुदा का है खुदा के वास्ते
या इलाही किस तरफ़ से पस है बाब-ए-असर
कौन सा नज़दीक है रास्ता दुआ के वास्ते
कह गए क्या देख कर नब्जों को क्या जाने तबीब
हाथ उठाये हैं अजीजों ने दुआ के वास्ते
तुम भी नाम-ए-खुदा हो मशक-ए-ज़ुल्म-ओ-जोर हो
आसमां से मशवरा कर लो ज़फा के वास्ते
मुझको उस मिटटी से खालिक ने बनाया है "कमर"
रह गयीं थी जो अज़ल के दिन वफ़ा के वास्ते

Saturday, May 30, 2009

qamar ki shayyiri

सब का एहसान उठाने की ज़रूरत कया है
साथ तुम हो तोः ज़माने की ज़रूरत कया है
दिल से तय कर के किसी रोज़ अल्लग हो जाओ
छोड़ना है तोः बहाने की ज़रूरत कया है
कया हुआ उस से जो पहले सा ताल्लुक ना रहा
शहर को छोड़ के जाने की ज़रूरत कया है !
मसला दोनों का है तै भी करेंगे दोनों
शहर को बीच में लाने की ज़रूरत कया है
ख्वाहिशें दिल से निकल आयें तोः हैरत कैसी
इन् परिंदों को ठिकाने की ज़रूरत कया है
फूल को शोर मचाते कभी देखा है 'कमर'
तुम हो खुसबू तोः बताने की ज़रूरत कया है ?

Tuesday, May 19, 2009

qamar ki shayyiri

मुहब्बत सरफिरी खुद है, कहाँ मअयार देखगी
है इस की ज़द्द में किस का सर, कहाँ तलवार देखेगी
ये तो मर्ज़ी है सूरज की, बना दे जिस तरफ साये
किधर छाओं ज़रूरी है, कहाँ दीवार देखगी
खबर कया उसको गुलशन की, सबा की, मौशम-ए-गुल की
जो खुद दीपक सा पैकर है, कहाँ मल्हार देखेगी
उसे दो आईने ऐसे, करें जो गुफ्तगू उससे
'कमर' फुर्सत नहीं उसको तो पायल झनझनाने से
हमारे दिल के बजते हैं कहाँ वो तार देखेगी

*

wel come