Friday, May 29, 2009

nasir kazmi ki shayyiri

किस्से हैं खामोशी में निहाँ और तरह के
होतें हैं ग़म-ऐ-दिल के बयाँ और तरह के
थी और ही कुछ बात के था ग़म भी गवारा
हालत हैं अब दर पेयी जन और तरह के
ऐ रह रो-ऐ-रहे वफ़ा देख के चलना
इस रह में हैं सन-ऐ-गराँ और तरह के
खटका है जुदाई के न मिलने की तमन्ना
दिल को है मेरे वहम-ओ-गुमां और तरह के
दुनिया को नही ताब मेरे दर्द की या रब
दे मुझको असलीब-एफ़ूक़न और तरह के
हस्ती का भरम खोल दिए एक नज़र ने
अब अपनी नज़र में हैं जहाँ और तरह के
लश्कर है न परचम है न दौलत है न सरवत
हैं खाक़ नशीनों के निशान और तरह के
मरता नही अब कोई किसी के लिए नासिर
थे अपने ज़माने के जवान और तरह के

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