nikala mujhko zannat se
fareb-e-zindgi de kar..............
diya phir shaunq zannat ka ye hairani nahi jaati.......
Saturday, December 20, 2008
"daag" ki shayyiri
सबब खुला ये हमें उन के मुँह छुपाने का उड़ा ना ले कोई अंदाज़ मुस्कुराने का ज़फाएँ करते हैं थम थम के इस ख्याल से वो गया तो फिर ये नहीं मेरे हाथ आने का खता मुआफ, तुम ऐ ! 'दाग' और ख्वाहिश-ए-वसल कसूर है ये फकत उन के मुँह लगाने का
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