Tuesday, March 17, 2009

kaleem ajiz ki shayyiri

छुरी जिनके हाथों से खाना पड़े है
ग़ज़ल भी उन्हीं को सुनना पड़े है
तबियत को काबू में लाना पड़े है
उठते है कहाँ ग़म, उठाना पड़े है
कुछ आसान नहीं मंसब-ए-सुर्ख-रुई
कई बार मकतल में जाना पड़े है
ना आ दर्दमंदों की महफिल में प्यारे
यहाँ उम्र भर दिल जलाना पड़े है

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