Sunday, May 10, 2009

"Daag" ki shayyiri

अजब अपना हाल होता जो विसाल-ए-यार होता
कभी जान सदके होती कभी दिल निसार होता
कोई फितना ता_क़यामात, न फिर अश्कार होता
तेरे दिल पे काश जालिम मुझे इख्तियार होता
जो तुम्हारी तरह तुमसे कोई झूठे दावे करता
तुम्ही मुनसिफी से कह दो तुम्हे ऐतबार होता
ये मज़ा था दिल लगी का के बराबर आग लगती
न तुझे करार होता न मुझे करार होता
न मज़ा है दुश्मनी में, न कोई लुत्फ़ दोस्ती में
कोई गैर गैर होता, कोई यार यार होता
तेरे वादे पर सितमगर अभी और सब्र करते
मगर अपनी जिंदगी का हमें ऐतबार होता
तुम्हे नाज़ हो न क्यूँकर के लिया है 'दाग' का दिल
ये रक़म न हाथ लगती न ये इफ्तिखार होता

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