Sunday, May 10, 2009

faraz ki shayyiri

ऐसे चुप है के ये मंजिल भी खड़ी हो जैसे !
तेरा मिलना भी जुदाई कि घडी हो जैसे !
अपने ही साए से हरदम लरज़ जाता हूँ !
रास्ते में कोई दीवार खड़ी हो जैसे !
मंजिलें दूर भी है, मंजिलें नज़दीक भी है !
अपने ही पाऊँ में जंजीर पड़ी हो जैसे !
कितने नादाँ है तेरे भुलाने वाले ... कि तुझे !
याद करने के लिए उम्र पड़ी हो जैसे !
आज दिल खोल के रोये हैं तोह ख़ुशी है 'फ़राज़' !
चंद लम्हों कि ये राहत भी बड़ी हो जैसे

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