Saturday, May 30, 2009

himayat ali ki shayyiri

इस बार वो मिला तोः अजीब उसका रंग था
अल्फाज़ में तरंग ना लहजा दबंद था
एक सोच थी की भिकारी हुई खाल-ओ-खाद[body] में थी
एक दर्द था की जिसका शहीद अंग-अंग था
एक आग थी की राख में पोशीदा[hidden] थी कहीं
एक जिस्म था की रूह से मसरूफ-ए-जंग था
मैंने कहा की यार तुम्हें कया हुआ है ये
उस्सने कहा की उमर-ए-रवां की अता है ये
मैंने कहा की उमर-ए-रवां तोः सभी की है
उसने कहा की फ़िक्र-ओ-नज़र की अता है ये
मैंने कहा की सोचता रहता तोः मैं भी हूँ
उसने कहा की आईना रखा हुआ है ये
देखा तोः मेरा अपना ही अक्स-ए-ज़माल था वो
वो मैं था और 'हिमायत अली' था वो

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