दास्ताँ-ऐ-ग़म-ऐ-दिल उन्को सुनाई न गई
बात बिगड़ी थी कुछ ऐसी की बनाई न गई
सबको हम भूल गए जोश-ऐ-जूनून में लेकिन
एक तेरी याद थी ऐसी की भुलाई न गई
इश्क पर कुछ न चला दीदार-ऐ-तर का जादू
उसने जो आग लगा दी वो बुझाई न गई
क्या उठाएगी सबा खाक़ मेरी उस डर से
ये क़यामत तोह ख़ुद उंनसे भी उठाई न गई
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