Friday, May 22, 2009

kaifi aazmi ki shayyiri

खार-ओ-खस तो उठें, रास्ता तो चले
मैं अगर थक गया, काफ़ला तो चले
चांद, सूरज, बुजुर्गों के नक्श-ए-क़दम
खैर बुझने दो उनको हवा तो चले
हाकिम-ए-शहर, यह भी कोई शहर है
मस्जिदें बंद हैं, मैकदा तो चले
उसको मज़हब कहो या सिआसत कहो!
खुद्कुशी का हुनर तुम सिखा तो चले
इतनी लाशें मैं कैसे उठा पाउँगा
आप ईंटों की हुरमत बचा तो चले
बेल्चे लाओ, खोलो ज़मीन की तहें
मैं कहाँ दफ़न हूँ, कुछ पता तो चले


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