Friday, May 22, 2009

meer taqi meer ki shayyiri

हस्ती अपनी हुबाब की सी है
यह नुमाईश सराब की सी है
नाज़ुकी उस के लब की क्या कहिए
पंखुड़ी एक गुलाब की सी है
बार बार उसके दर पे जाता हूं
हालत अब इज़्तिराब की सी है
मैं जो बोला कहा कि यह आवाज़!
उसी ख़ाना-ख़राब की सी है
मीर उन नीम-बाज़ आंखों में
सारी मस्ती शराब की सी है


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