Friday, May 29, 2009

muzaffar warsi ki shayyiri

मेरी जुदाइयों से वो मिल कर नहीं गया
उसके बगैर मैं भी कोई मर नहीं गया
दुनिया में घूम-फिर के भी ऐसे लगा मुझे
जैसे मैं अपनी जात से बाहर नहीं गया
क्या खूब हैं हमारी तारीकी -
पसंदियाँ
जीने बना लिए कोई ऊपर नहीं गया
जुगराफिये ने काट दिए रास्ते मेरे
तारीख को गिला है के मैं घर नहीं गया
ऐसी कोई अजीब इमारत थी ज़िन्दगी
बाहर से झांकता रहा अन्दर नहीं गया
सब अपने ही बदन पे 'मुज़फ्फर' सजा लिए
वापस किसी तरफ़ कोई पत्थर नहीं गया

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