Friday, May 29, 2009

qaiser ul jafri ki shayyiri

हर शम्मा बुझी रफ्ता रफ्ता, हर ख्वाब लुटा धीरे धीरे
शीशा सही पत्थर भी था, दिल टूट गया धीरे धीरे
बरसों में मरासिम बनते हैं, लम्हों में भला क्या टूटेंगे
तू मुझसे बिछड़ना चाहे तोह, दीवार उठा धीरे धीरे
एहसास हुआ बर्बादी का जब सारे घर में धूल उडी
आई है हमारे आँगन में पतझड़ की हवा धीरे धीरे
दिल कैसे जला किस वक्त जला हमको भी पता आख़िर में चला
फैला है धुआं चुपके चुपके, सुलगी है चिता धीरे धीरे
वो हाथ पराये हो भी गए अब दूर का रिश्ता है 'कैसर'
आती है मेरी तन्हाई में खुशबु--हिना धीरे धीरे

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