जब कभी चाहे अंधेरों में उजाले उसने
कर दिया घर मेरा शोलों के हवाले उसने
उस पे खुल जाती मेरे शौक़ की शिदत सारी
देखे होते जो मेरे पाऊँ के छले उसने
जिस का हर ऐब ज़माने से छुपाया मैंने
मेरे किस्से सर-ऐ-बाज़ार उछाले उसने
जब उससे मेरी मुहब्बत पर भरोसा ही न था
क्यूँ दिए लोगों को मेरी वाफ्फओं के हवाले उसने
एक मेरा हाथ जी न थमा उसने वरना
फिरते हुए कितने ही संभाले उसने
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