nikala mujhko zannat se
fareb-e-zindgi de kar..............
diya phir shaunq zannat ka ye hairani nahi jaati.......
Thursday, June 4, 2009
abdullah kamal ki shayyiri
दिन चढ़े और बिखर जाऊं रात उतरे तो मैं घर जाऊं बोहत एहसास है होने का इतना जिंदा हूँ के मर जाऊं मैं ज़मीन-दादः[inhabiting land] सही फिर भी आसमां सा हूँ जिधर जाऊं वाही बेचेहरगी हर सू है आईना हूँ मैं, किधर जाऊं
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