Thursday, June 4, 2009

abdullah kamal ki shayyiri

दिन चढ़े और बिखर जाऊं
रात उतरे तो मैं घर जाऊं
बोहत एहसास है होने का
इतना जिंदा हूँ के मर जाऊं
मैं ज़मीन-दादः[inhabiting land] सही फिर भी
आसमां सा हूँ जिधर जाऊं
वाही बेचेहरगी हर सू है
आईना हूँ मैं, किधर जाऊं

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