Thursday, June 4, 2009

faraz ki shayyiri

सुना है लोग उसे आंख भर के देखते हैं
सो उसके शहर में कुछ दिन ठहर के देखते हैं
सुना है बोले तो बातों से फूल झड़ते हैं
यह बात है तो चलो बात करके देखते हैं
सुना है रात को तितलियाँ सताती है
सुना है रात को जुगनू ठहर के देखते हैं
सुना है उसके बदन की तराश ऐसी है
कि फूल अपनी क़बाएं क़तर के देखते हैं
रुके तो गर्दिशें उसका तवाफ़ करती हैं
चले तो उसको ज़माने ठहर के देखते हैं
किसे नसीब के बे-पैरहन उसे देखें
कभी कभी दर-ओ-दीवार घर के देखते हैं
कहानियाँ ही सही, सब मुबाल्गे ही सही
अगर वो ख्वाब है, ताबीर कर के देखते हैं
जुदाईयाँ तो मुक़दर है फिर भी जान-ए-सफर
कुछ और दूर ज़रा साथ चल के देखते हैं
तू सामने है तो फिर क्यूँ यकीन नहीं आता
यह बार बार जो आंखों को मल के देखते हैं
यह कौन लोग हैं मोजूद तेरी महफिल में
जो लालचों से तुझे मुझको जल के देखते हैं
न तुझको मात हुई है न मुझको मात हुई
सो अब के दोनों ही चालें बदल के देखते हैं

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