nikala mujhko zannat se
fareb-e-zindgi de kar..............
diya phir shaunq zannat ka ye hairani nahi jaati.......
Friday, June 5, 2009
faraz ki shayyiri
फिर उसी राहगुज़र पर शायद हम कभी मिल सकें, मगर शायद जान पहचान से भी क्या होगा फिर भी ए दोस्त गौर कर, शायद मुंतजीर जिनके हम रहे उनको मिल गए और हमसफ़र शायद जो भी बिछडे हैं कब मिले हैं 'फ़रज़' फिर भी तू इंतज़ार कर शायद
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