Thursday, June 4, 2009

mohsin ki shayyiri

कतल छुपते थे कभी संग की दीवार के बीच
अब तो खुलने लगे मकतल भरे बाज़ार के बीच
अपनी पोशाक के छीन जाने पे अफ़सोस कर
सर सलामत नही रहते यहाँ दस्तर के बीच
सुर्खियाँ अमन की तलकीन में मसरूफ रहें
हरूफ बारूद उगलते रहे अख़बार के बीच
काश इस खुवाब की ताबीर की मोहलत न मिले
शोले उगते नज़र आए मुझे गुलज़ार के बीच
ढलते सूरज की तमाज़त ने बिखर कर देखा
सर कशीदा मेरा साया साफ-ए-अश्जार के बीच
रिजक, मलबोस, मकाँ, साँस, मर्ज़, क़र्ज़, दवा
मुन्किसम हो गया इंसान इन्ही अफ़कार के बीच
देखे जाते न थे आंसू मेरे जिस से 'मोहसिन'
आज हँसते हुए देखा उससे अग्यार के बीच

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