Friday, June 5, 2009

unknown

ये खला है अर्श-ए-बारीं नही,कहाँ पाऊँ रखों ज़मीन नही
तेरे दर पे सजदे का शोंक है जो यहाँ नही तू कहीं नही
किसी बुत-तराश ने शेहर में मुझे आज कितना बदल दिया
मेरा चेहरा मेरा नही रहा ये जबीं भी मेरी जबीं नही
है ज़रूर इस में भी मसली'हत वो जो हँस के पूछे है खैरीयत
के मोहबतों में गरज न हो, नही ऐसा प्यार कहीं नही
तेरी जुल्फ जुल्फ सजाऊं क्या तुझे ख्वाब ख्वाब देखऊँ क्या
मैं सफर से लौट के आऊँगा, मुझे ख़ुद भी इस का यकीन नही

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