शम्मा क्यूँ है बेदिल ये उसकी क्या अदा है
वो अहल-ए-खलक क्या जाने ये दिल क्यूँ ग़म-ज़दा है
हम सागर-ए-ग़म में न क्यूँ ख़ुद को डूबोयें
जाना यही आयाम ये मंज़ूर-ए-खुदा है
क्या शम्स-ओ-कमर ने नही देखा मेरा आलम
या रब तेरे इस दर पे अब येही मेरी सदा है
जब इश्क यूँ गाफिल हुआ फिर रोये क्यूँ ज़फर
काफिर के चश्म-ए-मस्त पे ये दिल क्यूँ फ़िदा है
अब जाएँ तो किधर या खुदा तू ही ये बता
ये खस्ता-ए-हस्ती ही मेरी उनसे जब जुदा है
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