Saturday, January 17, 2009

mohsin ki shayyiri

यें दिल यें पागल दिल मेरा क्यूँ बुझ गया आवारगी
इस दस्त में इक शहर था वो कया हुआ आवारगी ?
कल शब् मुझे बेशकल सी आवाज़ ने चौंका दिया
मैंने कहा तू कौन है उसने कहा आवारगी !
लोगो उस शहर में भला कैसे जियेंगे हम जहाँ
हो जुर्म तन्हा सोचना, लेकिन सज़ा आवारगी
एक तू के सदियों से मेरा हमराह भी हमराज़ भी
एक मैं के तेरे नाम से ना_आशना आवारगी
यह दर्द की तन्हाईयाँ, यें दस्त का वीरान सफ़र
हम लोग तो उकता गए अपनी सुना आवारगी
एक अजनबी झोंके ने जब पुछा मेरे गम का सबब
सहरा की भीगी रेत पर मैंने लिखा आवारगी
ले अब तो दस्त-ए-शब् की साड़ी वुसातें सोने लगी
अब जागना होगा हमें कब तक बता आवारगी
कल रात तन्हा चाँद को देखा था मैंने खाब में
"मोहसिन" मुझे रास आएगी शायद सदा आवारगी

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