प्यास वो दिल की बुझाने कभी आया भी नहीं
कैसा बादल है जिसका कोई साया भी नहीं
बेरुखी इस से बड़ी और भला क्या होगी
एक मुद्दत से हमे उस ने सताया भी नहीं
रोज़ आता है दर-ऐ-दिल पे वो दस्तक देने
आज तक हमने जिसे पास बुलाया भी नहीं
सुन लिया कैसे खुदा जाने ज़माने भर ने
वो फ़साना जो कभी हमने सुनाया भी नहीं
तुम तो शायर हो `क़तील` और वो इक आम सा शख्स
उस ने चाह भी तुझे और जताया भी नहीं
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