करता हूँ जमा मैं तोह बिखरती है जात और
बाक़ी है कितनी ऐ मेरे मौला, ये रात और !
लेती है जलती शाम’आ भी बुझने में कुछ तोह वक्त
है आदमी सा कोई कहाँ बे-सबात और
सैलाब जैसे लेता है दीवार के क़दम
करता है ग़म भी दिल से कोई वारदात और
यूँ तोह हुजूर-ऐ-पाक (सव) के लाखों हैं माद्दाख्वाँ
ताइब सी लिख रहा है मगर कौन नअत और
मजहर, अजल के हुस्न के 'अमजद' हैं बे-शुमार
लेकिन जो देखिये तोह है बारिश की बात और
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