Friday, May 29, 2009

amjad islam amjad ki shayyiri

करता हूँ जमा मैं तोह बिखरती है जात और
बाक़ी है कितनी मेरे मौला, ये रात और !
लेती है जलती शाम भी बुझने में कुछ तोह वक्त
है आदमी सा कोई कहाँ बे-सबात और
सैलाब जैसे लेता है दीवार के क़दम
करता है ग़म भी दिल से कोई वारदात और
यूँ तोह हुजूर--पाक (सव) के लाखों हैं माद्दाख्वाँ
ताइब सी लिख रहा है मगर कौन अत और
मजहर, अज के हुस्न के 'अमजद' हैं बे-शुमार
लेकिन जो देखिये तोह है बारिश की बात और

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