Saturday, May 30, 2009

unknown

मेरे सबर का न ले इम्तिहान, मेरी खामोशी को सदा न दे
जो तेरे बगैर न जी सके, उससे जीने की तू दुआ न दे
तू अजीज़ दिल-ओ-नज़र से है .. तू करीब रग-ओ-जान से है
मेरे जिस्म-ओ-जान का यह फासला कहीं वक्त और बढ़ा न दे
तुझे भूल के न भुला सकूं, तुझे चाह के भी न पा सकूं
मेरी हसरतों को शुमार कर मेरी चाहतों का सिला न दे
वो तड़प जो शोला-ऐ-जान में थी, मेरे तन बदन से लिपट गई
जो बुझा सके तोह बुझा इससे न बुझा सके तोह हवा न दे
तुझे गर मिले कभी फुरसतें मेरी शाम फिर से संवार दे
गर क़त्ल करना है तोह कतल कर यूँ जुदाइयों की सज़ा न दे

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