Saturday, May 9, 2009

unknown

पूछते हो तो सुनो कैसे बसर होती है
रात खैरयत की, सदके की सहर होती है
सांस भरने को तो जीना नहीं कह्ते या रब !
दिल ही दुखता है ना अब आस्तीन तर होती है
जैसे जागी हुई आँखों में चुभें कांच के ख़्वाब
ग़म ही दुश्मन है मेरा ग़म ही को दिल ढूँढ़ता है
एक लम्हे की जुदाई भी अगर होती है
एक मरकज़ [center] की तलाश,एक भटकती खुशबु
कभी मंजिल कभी तम्हीद[prelude/preamble]-ए सफ़र होती है

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