Sunday, May 10, 2009

firaq ki shayyiri

काफी दिनोँ जिया हूँ किसी दोस्त के बगैर
अब तुम भी साथ छोड़ने को
कह रहे हो खैर !!

कब से तेरे दयार में हूँ मैं तेरे बगैर
मुझसे है आसमान को
खुदा वास्ते का बैर !!

यूँ जिन्दगी गूज़ार रहा हूँ तेरे बगैर
जैसे करे खज़ां में कोई
गुलिस्ताँ की सैर !!

बाँधो सफ़ें नमाजे-जमाअत के वास्ते
मैं कौन ऐ सयुखें-हरम(काबे का अध्यक्ष)
पेशइमामे दैर(बूतखाने का पुरोधा)

जाते हैं दाग़ सोहबते-शब का लिए हुए
अच्चा जो हो सका तो कल
आयेंगे शब-बखैर

उकबा की जिंदगी का खुदा हाफिज़ ऐ नदीम
हम तो मन रहे हैं इसी
जिंदगी की खैर

ता-हाल हो सके न हम आहंग(सम्मिलित आवाज़) साजे-दहर
कानों में आ रहीं हैं अभी
एक सदा-ए-गैर

अख़लाके-तब-एं-यार तुझे मानना पड़ा
मिलना उसी तपाक से वो
खवैश हों की गैर

जो भी निगाह उठती है मैकदा-बदोश
ऐ नर्गिशे-सियाह
तेरी नीयतें बखैर

तकदीरे-हुस्नो-इश्क जुदाई है अलविदा
है जिन्दगी अगर तो कभी
फिर मिलेंगे खैर

राहें पुकारती हैं की साहेब परे-परे
शोले बीछे हुए हैं, दिलो के बचा के पैर
इस कुर्ब से तो दर्दे-"फिराक" और बढ़ गया
'घर जब बना लिया तेरे दर पर कहे बगैर'

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