Friday, May 29, 2009

javed akhtar ki shayyiri

मिसाल इसकी कहाँ है ज़माने में
की सारे खोने के ग़म पाये हमने पाने में
वो शक्ल पिघली तोह हर शै में ढल गई जैसे
अजीब बात हुई है उससे भुलाने में
जो मुन्तजिर न मिला, वो तोह हम हैं शर्मिंदा
की हमने देर लगा दी पलट के आने में
लतीफ़ था वो तखैयुल से, ख्वाब से नाज़ुक
गवा दिया हमने ही उसे आजमाने में
समझ लिया था कभी एक सराब को दरिया
पर एक सुकून था हमको फरेब खाने में
झुका दरख्त हवा से, तोह आंधियों ने कहा
ज़्यादा फर्क नहीं झुक के टूट जाने में

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