Sunday, May 10, 2009

बात रोजाना ही होती है खुदा से मेरी

बात रोजाना ही होती है खुदा से मेरी
लेकिन इस दौर में क्या होगा दुआ से मेरी !
कौन बदलेगा, अब इस उम्र में अंदाज़-ए-बयां !
वो बिगड़ते हैं, बिगड़ जाएँ बला से मेरी
तेरी पिन्दार-ए-इनयात[मेहरबानी का घुमंड] ही बनाये रख ले
और कुछ हो की न हो, चाहे वफ़ा से मेरी
इनको बहलाते गुज़र जायेगी बाकि शब भी
जाग उठे हैं कई ख्वाब "सदा" से मेरी
ये न सोचो की मुझे चीन के प् लोगे कभी
वैसे जब चाहे तो ले जाओ राजा से मेरी
अपने अख़लाक़ का दावा भी नहीं छोडेगा
मेरा मुंसीफ है पशेमान[शर्मिंदा] सजा से मेरी
वो जो समझा न कभी मेरी वफाओं का खलूस[पवित्रता]
वो भी बेजार[रूठा] है किस दर्जा जाफा से मेरी
सर बरहना[नंगा] है कभी, पाँव कभी है बहार
यूँ की दोनों की शिकयात है रिदा[चादर] से मेरी
क्यूँकि दोनों मुझे चैन से जीने नहीं देती आखिर
कोई तो पूछे 'ख्याल' अना[अहम्] से मेरी

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