Friday, May 29, 2009

shamim jaipuri ki shayyiri

तेरा जलवा निहायत दिल_नशीं है
मुहब्बत लेकिन इससे भी हसीन है
जूनून की कोई मंजिल ही नहीं है
यहाँ हर गाम, गाम-ऐ-अव्वलीं है
सुना है यूँ भी अक्सर ज़िक्र उंनका
की जैसे कुछ ताल्लुक ही नहीं है
मसीहा बन के जो निकल थे घर से
लहू में तर उन्हीं की आस्तीन है
मैं राह-ऐ-इश्क का तन्हा मुसाफिर
किसे आवाज़ दूँ, कोई नहीं है
‘शमीम’ उसको कहीं देखा है तुमने
सुना है वो राग-ऐ-जान के करीं है

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