Thursday, June 4, 2009

abdulwahab ki shayyiri

सनम देखते हैं,भरम देखते हैं
रब का अपने लिये करम देखते हैं
तुझे भुला कर भी जी लेंगे हम
ख़ुद से किया जो ये अब अज़म देखते हैं
मैं ना रहूँगा,तू भी ना रहेगा
मोहब्बत हमारी इस का,अदम देखते हैं
जब से रहने लगा है तू दिल मैं मेरे
इस घर को भी ऐसे जैसे,हरम देखते हैं
जब से देखा है तुझे,भुला दिया सबको
हम मोहब्बत को ही बस धरम देखते हैं
तुने फेर ली हैं जब से नज़रें
ज़िन्दगी अपनी हम बस ग़म देखते हैं
जब भी तलब हो अब नशे की
तेरी ही आके अब तो चश्म देखते हैं
तेरे रूप कि रौशनी ही है काफ़ी
अब सूरज, चाँद हम कम देखते हैं
तुझ पर लिखते हैं हम बस तुझ पर
इस लिये हाथों में अपने कलम देखते हैं
मुझ में भी अब तू ही दीखता है
सामने आईने के हम ख़ुद को कम देखते हैं
तेरे बिना सोचते हैं जब ज़िन्दगी
इससे तो बस हम ख़ुद ही मुन्हादिम देखते हैं
जब से चाहा है बनाना ज़िन्दगी का मकसद
'अब्दुलवहाब' सर को सिर्फ सजदे मैं हम देखते हैं

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