Saturday, June 6, 2009

azhar kamal azhar ki shayyiri

किसी की बेवफाई बैस-ए-हैरत नहीं होती
ज़रा सा दिल तो दुखता है मगर शिद्दत नहीं होती
बोहत ख़ुद को जलाता हूँ ये बरसों की रिआज़त है
मेरे अन्दर की लेकिन दूर ये ज़ुल्मत नहीं होती
यह दुख है की किसी ने भी हमें दिल से नहीं चाहा
ज़रा सा प्यार मिल जाता तो यह हालत नहीं होती
ज़मीन-ओ-आसमां में इक ताल्लुक तो है सदियों से
मगर पैदा कहीं भी रब्त की सूरत नहीं होती
अजब ही फलसफा है ये अमीरी और गरीबी का
के उम्रें सर्फ़ हो जाती हैं कम गुरबत नहीं होती
बोहत से खूब चेहरे हैं बोहत सी दिलरुबा नज़रें
तेरे होने से होती थी जो केफियत नहीं होती
हवाला जब तलक तेरा न आ जाए कहीं इनमें
मेरे शेरों में पैदा तब तलक जिद्दत नहीं होती
तेरे गुमनाम मर जाने में 'अज़हर' क्या बुराई है
की हर इंसान की किस्मत में तो शोहरत नहीं होती

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