सुब्ह ता शाम सोचता हूँ मैं
सौ तेरे नाम सोचता हूँ मैं
ये जो एक ताज़ा आग भड़की है
इस का अंजाम सोचता हूँ मैं
सामने है कलम भी काग़ज़ भी
और पैगाम सोचता हूँ मैं
तुझसे इस दिल का जो ता'अल्लुक़ है
उस का कुछ नाम सोचता हूँ मैं
एक शाम-ए-फिराक ढल भी गई
फिर भी हर शाम सोचता हूँ मैं
क्या सबब है ग़म-ए-ज़माने !
ल ज़रा जाम सोचता हूँ मैं
अब कोई फ़िक्र ही नही "बाकी"
बस तेरा नाम सोचता हूँ मैं
No comments:
Post a Comment