Friday, June 5, 2009

faraz ki shayyiri

सिलसिले तोड़ गया वो सभी जाते जाते
वरना इतने तो मरासिम[रिश्ता] थे के आते जाते
शिकवा-ए-ज़ुल्मत-ए-शब् से तो कहीं बेहतर था
अपने हिस्से की कोई शम्मा जलाते जाते
कितना आसन था तेरे हिज्र में मरना जाना
फिर भी इक उमर लगी जान से जाते जाते
जशन-ए-मकतल ही न बरपा हुआ वर्ना हम भी
पा-बजोलान[chained] ही सही नाचते गाते जाते
उसकी वो जाने उसे पास-ए-वफ़ा था के न था
तुम "फ़रज़" अपनी तरफ़ से तोह निभाते जाते

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